दिल्ली, जो कभी अपनी तहज़ीब और रौशनी के लिए मशहूर थी, आज एक नए अंधेरे से जूझ रही है—हत्या का अंधेरा। हर दिन किसी न किसी की जान ली जा रही है; कभी एक मासूम नाबालिग को मौत के घेरे में धकेल दिया जाता है, तो कभी एक महिला, पुरुष या बच्चे को बेरहमी से मार दिया जाता है।
नई दिल्ली | 26 सितंबर: आज सवाल ये है: क्या किसी का खून करना इतना आसान हो गया है? क्या इंसानी ज़िंदगी की क़ीमत अब कुछ भी नहीं रही? राजधानी के दिल में ये कौन सी खलिश है, जो हत्याएं रुकवा नहीं पा रही? हम आज इन्हीं सवालों के जवाब तलाशने निकले हैं, उन गलियों में जहाँ मौत अपने पंजे फैला चुकी है।
दिल्ली के गुड मंडी इलाके में एक ऐसी घटना हुई जिसने एक बार फिर समाज की सोच और उसके खोखलेपन पर सवाल खड़े कर दिए हैं। 24 वर्षीय अब्दुल, जो शादीशुदा था और एक 8 महीने के मासूम बच्चे का पिता था, तीन दिन पहले उसके ही कुछ दोस्तों ने बेरहमी से सड़क पर मार डाला। यह घटना न केवल दुखद है बल्कि समाज में फैल रही नफरत और असंवेदनशीलता की गहरी झलक दिखाती है।
दोस्ती का कत्लगाह में बदलना:
अब्दुल के हत्यारे कोई और नहीं बल्कि उसके अपने दोस्त थे। ये वही लोग थे जिनके साथ उसने अपनी ज़िन्दगी के कुछ बेहतरीन पल बिताए होंगे, जिनपर उसने भरोसा किया होगा। लेकिन उस भरोसे को तोड़ते हुए, उन्होंने अब्दुल को बीच सड़क पर मौत के घाट उतार दिया। दोस्ती, जो इंसानियत की सबसे मजबूत कड़ी मानी जाती है, आज उसी रिश्ते का खून हो गया।
पुलिस की निष्क्रियता:
इस घटना के बाद अब्दुल का परिवार और उसके करीबी लोग इंसाफ की गुहार लगा रहे हैं, लेकिन दिल्ली पुलिस की निष्क्रियता और धीमी कार्यवाही से सब हैरान हैं। सवाल यह है कि आखिर कब तक ऐसी घटनाएं होती रहेंगी और पुलिस उन्हें नजरअंदाज करती रहेगी? क्या एक आम नागरिक के जीवन की कोई क़ीमत नहीं रह गई है?
समाज पर लगा धब्बा:
इस तरह की घटनाएं हमारे समाज पर एक गहरा धब्बा हैं। यह सिर्फ एक हत्या नहीं है, बल्कि हमारी सोच, हमारे मूल्य, और हमारी इंसानियत पर किया गया एक बड़ा वार है। अब्दुल की हत्या समाज में फैल रही असहनशीलता, नफरत और अविश्वास का प्रतीक है। यह घटना हम सभी के लिए एक चेतावनी है कि अगर हम समय रहते नहीं जागे तो ऐसी घटनाएं आम होती जाएंगी और हम एक अंधकारमय समाज की ओर बढ़ते जाएंगे।
क्या हमें इंसानियत की कद्र है?
हर दिन हो रही ऐसी घटनाएं इस बात की तरफ इशारा करती हैं कि हम संवेदनहीन होते जा रहे हैं। एक दूसरे की भावनाओं, रिश्तों और जीवन का सम्मान करना जैसे भूलते जा रहे हैं। अब्दुल की तरह न जाने कितने लोग इस हिंसा का शिकार हो रहे हैं, लेकिन कब तक? आखिर कब तक हम आंखें मूंदे इस समाज की टूटती हुई नींव को अनदेखा करते रहेंगे?
जागो, समाज बचाओ:
समाज में ऐसी घटनाओं से न केवल एक व्यक्ति की जान जाती है, बल्कि पूरी मानवता पर इसका असर पड़ता है। अब वक्त आ गया है कि हम एकजुट होकर इन बढ़ती हुई घटनाओं का विरोध करें और समाज को सही दिशा में ले जाने का प्रयास करें। कानून व्यवस्था को सुधारने के लिए हम सभी को अपनी आवाज उठानी होगी ताकि कोई और अब्दुल अपने दोस्तों के हाथों न मारा जाए, और कोई और परिवार इस दर्द से न गुजरे।
निष्कर्ष:
यह घटना हमें सोचने पर मजबूर करती है कि आखिर हम किस दिशा में जा रहे हैं? क्या हम एक ऐसे समाज की ओर बढ़ रहे हैं जहाँ इंसानियत की कोई कीमत नहीं है? अब वक्त है जागने का, वक्त है इंसाफ की लड़ाई लड़ने का और वक्त है इस समाज को हिंसा और नफरत से मुक्त करने का। अब्दुल की मौत केवल एक घटना नहीं है, यह हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है कि ऐसी घटनाएं दोबारा न हों।